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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

भास्कर कुरुप


अर्णाकुलम् कोचिन।

कोचिन के समुद्र-तट से लौटते हुए गेट के पास आकर मैं एक पुरानी इमारत को देखने के लिए रुक गया। वहाँ जो लड़के खेल रहे थे, उनमें से एक ने पूछने पर बताया कि उस जगह का नाम मटनचरी पैलेस है-हिज़ हाइनेस का पुराना पैलेस।

मैंने पैलेस देखने की इच्छा प्रकट की, तो लड़का भागता हुआ चौकीदार को बुलाने चला गया। दो मिनट बाद आकर बोला, "इन सीढ़ियों से ऊपर चले जाइए। चौकीदार अन्दर से दरवाज़ा खोल रहा है।"

मैं ऊपर चला गया। चौकीदार ने दरवाज़ा खोल दिया था। मेरे ड्योढ़ी में पहुँचने पर उसने गम्भीर भाव से दीवार पर लगे बोर्ड की तरफ़ इशारा कर दिया। खुद आँखें नीची किये दरवाज़े के पास खड़ा रहा।

मैंने बोर्ड पर पढ़ा कि वह महल डच काल में बना था और कि वहाँ के कुछ कमरों की दीवारों पर बने चित्र उस काल की कला के उत्कृष्ट उदहारण हैं। एक कमरे के रामायण म्यूरेल का विशेष उल्लेख था।

मैं पढ़ चुका, तो चौकीदार उँगली में चाबी लटकाये चुपचाप आगे-आगे चल दिया। पहले वह मुझे जिस कमरे में ले गया, उसकी दीवारों पर शिव-पार्वती, अद्ध-नारीश्वर और लक्ष्मी-पार्वती के चित्र बने थे। अद्ध-नारीश्वर के चित्र में मुझे रंगों की योजना बहुत आकर्षक लगी। मैं कुछ देर रुककर उस चित्र को देखता रहा। चित्र से आँखें हटाते हुए मुझे लगा कि चौकीदार बहुत ध्यान से मेरे चेहरे को देख रहा है। मुझसे आँखें मिलने पर वह कुछ कहने को हुआ, पर चुप रह गया। मैं उसके बाद कुछ देर एक और चित्र के पास रुका रहा। वहाँ से हटने लगा, तो फिर देखा कि चौकीदार उसी तरह मुझे ताक रहा है। इस बार वह साहस करके थोड़ा पास आ गया और बोला, "इस चित्र में देखने को बहुत कुछ है-विशेष रूप से चेहरे का भाव और उँगलियों की स्थिति। यह कथाकलि की मुद्रा है।"

मैंने अब आश्चर्य के साथ उसकी तरफ़ देखा। बात उसने साफ़ अँगरेज़ी में कही थी-जो निःसन्देह रटी हुई भाषा नहीं थी। मैं और कुछ देर रुककर उस चित्र को देखता रहा। देखते हुए लगा कि पहली बार सचमुच मैं उसकी वह विशेषता लक्ष्य नहीं कर पाया था। इस बार मेरी आँखें चौकीदार की तरफ़ मुड़ीं, तो वह थोड़ा दूर खड़ा था और आँखें झुकाए कोने की तरफ़ देख रहा था।

वहाँ से निकलकर हम नीचे के एक कमरे में चले गये। वहाँ मटियाली सफ़ेद पृष्ठभूमि पर भूरी लकीरों से बने चित्र थे। विषय था पार्वती-विवाह। दीवार के एक कोने से शुरू करके बीच के हिस्से तक अरुन्धती और सप्तर्षियों का शिव से प्रार्थना करना कि असुर-विनाश के लिए वे विवाह कर लें तथा विवाह के लिए शिव का सज्जित होकर आना। शेष हिस्से में पार्वती के यहाँ विवाह की तैयारी तथा विवाह। कुछ जगह सफ़ेदी करनेवालों ने चित्रों पर अपनी कूचियाँ चला दी थीं। उस ओर संकेत करके चौकीदार ने कहा, "किसी भले आदमी को ये दीवारें मैली नज़र आती थीं। उसने इन्हें सफ़ेद करने की कोशिश की है।"

मैंने फिर उसकी तरफ देख लिया। यह भी लोगों को प्रभावित करने के लिए रटी गयी टिप्पणी नहीं हो सकती थी।

"कब की बात है यह?" मैंने पूछा।

उसने मुँह में कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। शायद इसका उत्तर उसे मालूम नहीं था।

"तुम कब से काम कर रहे हो यहाँ?" मैंने इसलिए पूछा कि शायद यह बात उसके वहाँ नौकरी करने से पहले की हो।

"मैं यहीं पैदा हुआ था," वह बोला। "यहीं पीछे हमारा घर है।"

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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